बिहार में चुनावी बिगुल बज चूका है. सभी पार्टियों की तैयारी जोर-शोर से चल रही है. मगध के महासंग्राम में बीजेपी के खिलाफ एक जुट हुए जनता परिवार को बीच मझधार में छोड़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला कर राजनैतिक गलियारों में हलचल मचा दी है. ये कयास लगाए जा रहे हैं कि मुलायम के अलग होने से मुस्लिम और यादव वोटों का ध्रुवीकरण होगा, जिसका सीधा – सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा. महागठबंधन जिस माय समीकरण को सबसे मजबूत मानती थी उस मिथक को मुलायम तोड़ते हुए नजर आ रहे हैं. एक तरफ जहां लालू प्रसाद चुटीले अंदाज में यह कह रहे हैं कि मुलायम को पियरी धोती पहनकर कर मना लेंगे वहीं मुलायम सिंह राजद और जदयू की जोड़ी को लठबंधन कह कर अपने बगावती तेवर पर अड़े हैं. पिछले विधान सभा चुनाव में सपा ने 240 सीटों में से 146 पर चुनाव लड़ा था, मगर एक भी सीट पर जीत नहीं मिली. हालांकि यादव समाज का वोट काटने में यह पार्टी सफल रही थी. इस कारण नितीश और लालू काफी चिंतित हैं.
दरअसल मुलयम सिंह यादव राजनीति में आने से पहले पहलवान थे जिस कारण आज भी वो तरह – तरह के दाव-पेंच जानते है . उन्होंने यही फार्मूला राजनीति में जमकर उपयोग किया. मुलायम सिंह यादव का महागठबंधन से अलग होना कोई सियाशी मज़बूरी हो सकती है लेकिन राजनीत में पलटी खाना उनका इतिहास रहा है. जिस चौधरी चरण सिंह के पार्टी से इन्होंने राजनीति का पैतरा सीखा उसी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह से अलग होकर 1992 में समाजवादी पार्टी का गठनकर उन्हें ठेंगा दिखा दिया. 1989 में जब बोफोर्स घोटाले को लेकर वीपी सिंह ने आंदोलन छेड़ा था तब मुलायम सिंह चंद्रशेखर और देवीलाल के साथ थे. देश में यह हलचल थी कि आखिर राजीव गाँधी के बाद प्रधानमंत्री कौन बनेगा ? चंद्रशेखर या वीपी सिंह ? हालात पूरी तरह से चंद्रशेखर के पक्ष में था लेकिन एन समय पर मुलायम सिंह ने पलटी खाकर वीपी सिंह के खेमे से जा मिले. चंद्रशेखर गुबार ही देखते रह गए और वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए, जिसमे अहम् भूमिका मुलयम सिंह यादव ने निभाई. चंद्रशेखर इससे बहुत आहत हुए और कहा कि अपने ही बड़े जोर से धक्का देते हैं.
मुलायम सिंह की अग्नि परीक्षा देश को एक बार देखने को मिली जब ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर युपीए सरकार से अलग रणनीति पर चल रही थीं तब सपा ने शुरुआत में इनका साथ तो दिया लेकिन बाद में ममता को झटका देते हुए कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के नाम पर मुहर लगा दी. मुलायम सिर्फ यहीं नहीं रुके ममता ने जब युपीए से से अपना नाता तोड़ लिया तब संकट मोचन बन कर इन्होंने सरकार को गिरने से बचा लिया. उस समय यह कहा जा रहा था कि सरकार को समर्थन देने की मुलायम सिंह की मजबूरी उनके और अखिलेश के ऊपर चल रहे आय से अधिक संपत्ति के आठ मामलों के कारण भी है. इनकी जांच सीबीआई कर रही है. कहा जाता है कि पिछले कई मौकों पर केंद्र सरकार ने उन्हें इसी के बूते अपने पाले में खड़ा किया है. तो सवाल फिर ये उठता है कि संसद के मानसून सत्र में जिस तरह से मुलायम सिंह कांग्रेस के 25 सांसदों के निलंबन के मामले से किनारा कर बीजेपी के साथ खड़े हुए कहीं वो सीबीआई का डर तो नहीं ? मुलायम सिंह के अतित को देखने के बाद यह लगता है कि ऐसा कोई सगा नहीं जिसको मुलायम ने ठगा नहीं.
1989 और 1996 में जिस लेफ्ट के समर्थन से मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनायी थी उसी लेफ्ट के नीतियों को 2008 में परमाणु मुद्दे पर तिलांजलि दे देते हैं. मुलायम सिंह यादव के बहुत करीबी मित्र बेनी प्रसाद वर्मा भी इनसे अलग होकर कांग्रेस का दामन थाम लिया और समय समय पर इनपर गंभीर आरोप लगाते रहे हैं. रालोद प्रमुख अजित सिंह ने तो मुलायम सिंह के बारे में यहां तक कह दिया कि मुलायम सुबह कुछ और बोलते हैं और शाम को कुछ और. इनके इस बयान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 1999 में वाजपेयी जी की 13 महीने की सरकार गिर गई. सोनिया गांधी सभी विपक्षी पार्टियों की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंची थी उसी समय मुलायम सिंह यह कहते फिर रहे हे कि वो तो इस मुद्दे पर कांग्रेस के समर्थन में नही हैं. जहां एक तरफ सोनिया को समर्थन में चिट्ठी दे चुके हैं वहीं दूसरी तरफ वाजपेयी जी के पक्ष में थे.
राजनीत में तो उठापटक होती रहती है. काल बदला, परस्थितियाँ बदली अवाम बदले सरकार बदली अगर नहीं नहीं बदला तो मुलायम सिंह यादव का नजरिया. 1967 में जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव जीत कर मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनैतिक पारी की शुरुआत की. अपने राजनैतिक पारी में वो इतने विस्फोटक बल्लेबाज होंगे किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अब तो बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम ही बताएगा कि चाणक्य की धरती पर मुलायम सिंह यादव का महागठबंधन से अलग होना इस चुनाव के लिए कितना टर्निंग पॉइंट होगा.
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