दलित कथा-साहित्य में दलित-चेतना का दायरा व्यापक हो रहा है, यह देखकर अच्छा लगता है. नयी पीढ़ी के रचनाकारों की संवेदना और मानवीयता की परिधि में वे सभी मनुष्य आ रहे हैं, जो जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल और धर्म के नाम पर शोषित और उपेक्षित हैं. सच में हर तरह के भेदभाव और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना ही दलित साहित्य का लक्ष्य भी है. अजय नावरिया और रत्नकुमार सांभरिया के बाद दलित चेतना का यह विस्तार हमें सूरज बड़त्या की कहानियों में मिलता है. हालाँकि उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हैं, पर जो भी लिखी हैं, वे उन्हें दलित साहित्य में विशिष्ट बनाती हैं. उनके कहानी-संग्रह ‘कामरेड का बक्सा’ में उनकी एक कहानी ‘कबीरन’ है, जिसमें उन्होंने एक हिजड़े की व्यथा को चित्रित किया है और यह चित्रण इतना मार्मिक है कि अगर आप जरा भी संवेदनशील हैं, तो रोए बिना नहीं रह सकते.
यह कहानी समाज के विद्रूप को तो दिखाती ही है, चेतना के स्तर पर मन को उद्वेलित भी करती है. हिंदी दलित साहित्य में यह पहली कहानी है, जिसके केंद्र में हिजड़ा है. समाज का हर व्यक्ति, जो हिजड़ों को देखकर घृणा प्रदर्शित करता है, अगर हिजड़े की जगह अपने को रखकर देखे, और सोचे कि अगर वह हिजड़ा होता या उसके घर का कोई सदस्य हिजड़ा होता, जिसका होना-न-होना उसके बश में नहीं है, तो उसे कैसा लगता और अपनी सामाजिक उपेक्षा पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती? सूरज बड़त्या की ‘कबीरन’ कहानी हमारे सामने कुछ ऐसे ही गम्भीर सवाल उठाती है.
कबीरन स्त्री-हिजड़ा है, जो एक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सुमेघ की बहिन है. सुमेघ को वह अक्सर ट्रेन में गाना गाकर लोगों का मनोरंजन करती हुई मिलती है. लेकिन यह बात उसे बहुत बाद में मालूम होती है कि वह उसकी बड़ी बहिन है, जिसे लोक-लाज के डर से घर में नहीं रखा गया था और जन्मते ही सुमेघ की दादी ने उसे अनाथालय भिजवा दिया था. बच्ची की माँ से कह दिया गया था कि मरा बच्चा पैदा हुआ था. पर माँ ने यकीन नहीं किया था, क्योंकि उसने जन्मते ही बच्ची के रोने की आवाज़ सुन ली थी. सुमेघ जब घर आकर अपनी अम्मा-बापू को कबीरन के बारे में बताता है, तो वे दुखी हो जाते हैं और अम्मा रोने लगती है. उसी दिन उसे पता चलता है कि कबीरन उसकी बहिन है. कहानी में यहाँ तक की यात्रा बहुत मार्मिक है.
सच जानने के बाद सुमेघ की इच्छा फिर से कबीरन से मिलने की होने लगती है. वह अमानवीय समाज से कबीरन को मुक्त कराने का विचार करने लगता है. उसके मस्तिष्क में चिंतन चलता है, ‘न ये आदमी हैं न औरत. पर हैं तो इंसान ही. जीते-जागते इंसान. इनकी विशेष अस्मिता की बात तो हमें ही करनी होगी, ये तो दलितों में दलित, अछूतों में अछूत, अनाथों में अनाथ हैं.’ एक दिन ट्रेन में ही कबीरन सुमेघ को फिर मिल जाती है. वह गाना गा रही होती है- ‘बना के क्यूं बिगाड़ा रे… नसीबा…ऊपर वाले..’ सुमेघ उसके पास जाकर उससे कहता है, ‘मुझे तुमसे बात करनी है दीदी.’ कहानी में यह बहुत ही मार्मिक चित्र है, जो चेतना को झकझोर देता है.
कबीरन सुमेघ के बताये कमरे पर आती है, जहाँ दोनों के बीच सम्वाद होता है. यह संवाद कहानी का महत्वपूर्ण भाग है. सुमेघ विनती करता है कबीरन से कि वह घर वापिस आ जाए. लेकिन कबीरन जो दसवीं तक पढ़ी है, सुमेघ से सवाल करती है,’ मेरा क्या कसूर था जो बापू ने मुझे घर से निकाल दिया? आज मैं दर-दर की ठोकरें खा रही हूँ तो क्यूं?’ वह बताती है, ‘मैं तो औरत हिजड़ा हूँ,
जब अनाथालय में थी, तो वहां तुम्हारी दुनिया के पुरुष ने ही मुझसे पहली बार बलात्कार किया था. पर मैं किसे बताती? कौन विश्वास करता कि हिजड़े के साथ बलात्कार हुआ? कहीं किसी कानून में लिखा है कि हिजड़े के साथ बलात्कार की क्या सजा है?’ कबीरन आगे बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहती है, ‘हम तो सीमान्त वाले हैं बाबू जी. कभी-न-कभी तो तुम लोगों के बनाये इन किलों और मठों को ढहा ही देंगे.’ कबीरन सुमेघ के साथ घर चलने से साफ मना कर देती है.
वह साफ-साफ कहती है, ‘मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती. मैं ही तुम्हारे समाज में क्यूं आऊं? तुम क्यूं नहीं आते हमें मुक्त कराने हमारे समाज में?’ सुमेघ पुन: याचना करता है घर लौट आने की. पर कबीरन उसे यह कहकर निरुत्तर कर देती है, ‘नहीं भैया, अगर तुम चाहते हो कि कभी भी कोई कबीरन घर से बेदखल न हो, तो समाज की मानसिकता को बदलने का प्रयास करो. हम भी इंसान हैं, हम में भी सांसें हैं, सपने हैं. तुम्हारी दुनिया हमें सामान्य नहीं मानती. ज़हनी बीमार हो तुम. बीमार समाज है तुम्हारा. बस हमसे इंसानों जैसा बर्ताव करो- डिग्निटी इज मोर इम्पोर्टेन्ट.’ निस्संदेह सूरज बड़त्या की ‘कबीरन’ कहानी दलित साहित्य में क्रांतिकारी दस्तक है.
लेखक – कँवल भारती
Kanwal Bharti
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