लखनऊ : बचपन बाल मज़दूरी में गुजरा तो पूरी जवानी भी मजबूरियों के विकट घेरे के हवाले रही. जीवन का बड़ा हिस्सा बड़े लोगों को और बड़ा बनाने की सेवा-टहल में या कहें कि किसी तरह ज़िंदा रहने की जुगत में गुजरा. गरीब बस्तियों के अधिकतर परिवारों की तरह कई सालों से उनके परिवार के लिए भी बरसात का मतलब मुसीबतों से मुठभेड़ करना रहा है. यह सालाना आफत है कि घरों में सीवर का पानी घुस आता है और हफ़्तों बाहर निकलने का नाम नहीं लेता. सड़ांध और रोग-बीमारियों का बसेरा हो जाता है, फोड़े-फुंसियों से बच्चे-बूढ़े हलकान हो जाते हैं. इलाज का बोझ अलग से पैबस्त हो जाता है. गोहार लगती है लेकिन नगर निगम उफ़ भी नहीं करता.
कमाल यह कि आज उसी मामूली आदमी ने लखनऊ नगर निगम के चुनाव में पार्षदी के लिए ताल ठोंकी है. नाम है वीरेन्द्र कुमार गुप्ता. वह इंदिरा नगर के मैथिलीशरण गुप्त वार्ड में रहते हैं. जर्जर हो चली पान की दूकान से कहने भर को उनका घर चलता है.
जैसा कि आम आदमी के साथ होता है- आर्थिक मजबूरियों ने उनके जीवन को भी ऐसा चकरघिन्नी बना रखा था कि उनके लिए बेहतरी का सपना देख पाना भी जैसे सपना हो गया था. आंखें देर से खुलीं और जब खुलीं तो बहुत दूर तलक देखने लगीं. इन सवालों से जूझने लगीं कि आख़िर गरीब गरीब क्यों होता है, कि गरीब के लिए हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी का इंतजाम इतना भारी क्यों हो जाता है, कि मेहनतकश गरीब क्यों लुटता-पिटता रहता है, कि उसकी दुख-तकलीफ़ें अनसुनी क्यों रहती हैं, कि उसके लिए सुनवाई के दरवाजे बंद के बंद क्यों बने रहते हैं…
समझदारी और हिम्मत ने पंख फैलाए. वीरेन्द्र कुमार गुप्ता ने हालात से समझौता करना छोड़ दिया, समझा कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. पुलिसवाले ने आइसक्रीम बेचनेवाले से मुफ़्त का माल खाना चाहा और मना करने पर उसे पीट दिया तो वीरेन्द्र कुमार गुप्ता पुलिसवाले से उलझ पड़े. दबाव बना तो पुलिसवाले को माफी मांगनी पडी. तकरोही के दलित युवक की पुलिस हिरासत में पिटाई से मौत हुई और पुलिस ने कहानी गढ़ कर चार मुसमानों को फंसा दिया तो वीरेन्द्र कुमार गुप्ता इस अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े हो गए. सरकारी स्कूल में बच्चों की पिटाई, पढ़ाई में ढिलाई, मिडडे मील में गड़बड़ी और स्कूल में साफ़-सफाई के सवाल को आम दिलचस्पी का विषय बनाने का बड़ा काम किया.
मुसीबतों के मारों को जोड़ा और बिना ढोल-नगाड़ा बजाये गरीब-गुरबों के हित-अधिकारों का मोर्चा खोला. उसे जीने का अधिकार अभियान नाम दिया और उसके तहत मासिक चौपाल की शुरूआत की. यह बदलाव की करवट थी. आम आदमी पार्टी ने उनके इसी जज्बे और उनकी लड़ाकू पहचान को सराहा और उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया.
वीरेन्द्र कुमार गुप्ता सचमुच आम आदमी हैं. उनके बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं, थोड़ी मजदूरी भी कर लेते हैं. पत्नी निजी स्कूल में आयागिरी का काम करती हैं.
उनके चुनाव प्रचार में उन्हीं जैसे आम लोगों का जुटान है. इसमें घरों में काम करनेवाली महिलाएं, दिहाड़ी मज़दूर और शिक्षित बेरोजगारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं. और हां, 110 वार्डों में वीरेन्द्र कुमार गुप्ता अकेले ऐसे उम्मीदवार हैं जिनका परचा रंगीन नहीं, काला-सफ़ेद है. वह कहते हैं कि हमें अपनी बात पर भरोसा है, तीमझाम पर नहीं.