जनता दल युनाईटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने पिछले दिनों अपने एक बयान में कहा कि सभी धर्मस्थानों से लाऊडस्पीकर हटा दिए जाने चाहिए। उन्होंने कहा कि श्रद्धालु लोग स्वेच्छा से धर्म स्थलों को जा सकते हैं उन्हें बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यादव ने कहा कि धर्मस्थलों पर लाऊडस्पीकर के इस्तेमाल से ध्वनि प्रदूषण तो होता ही है साथ-साथ पास-पड़ोस के लोगों को भी इस शोर-शराबे से तकलीफ होती है। शरद यादव देश के कोई पहले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्होंने धर्मस्थानों पर लाऊडस्पीकर के होने वाले प्रयोग का विरोध किया हो। इससे पूर्व भी देश के तमाम प्रतिष्ठित लोग तथा बुद्धिजीवी यही बातें कह चुके हैं। देश की अनेक अदालतों में इस संबंध में याचिकाएं भी दायर की जा चुकी हैं। इतना ही नहीं बल्कि न्यायालय द्वारा इस संबंध में स्पष्ट दिशा निर्देश भी जारी किए जा चुके हें। परंतु आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक धर्म के नाम पर किसी भी कायदे-कानून,नियम तथा नैतिकता का उल्लंघन करने के लिए मानो हर समय तैयार बैठे हों।
राजनैतिक दलों द्वारा लाऊडस्पीकर को धर्मस्थानों से हटाने की उम्मीद क्या करनी यह तो स्वयं इस व्यवस्था को बढ़ावा देने पर ही तुले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जि़ले के कांठ क्षेत्र में एक धर्मस्थान पर लाऊडस्पीकर बजाने को लेकर हुए सांप्रदायिक तनाव में सांप्रदायिकता फैलाने वाले तथा लाऊडस्पीकर बजाने की पैरवी करने वाले जिन नेताओं को हिंसा भडक़ाने के आरोप में उत्तर प्रदेश प्रशासन द्वारा जेल भेजा गया था उनकी रिहाई के बाद भारतीय जनता पार्टी द्वारा उनके सम्मान में समारोह आयोजित करने की खबर से सा$फ ज़ाहिर है कि धर्मस्थलों पर लाऊडस्पीकर का प्रयोग केवल ध्वनि प्रदूषण जैसा शरीर व मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने वाला प्रदूषण ही नहीं फैलाता बल्कि राजनैतिक दलों के नापाक राजनैति एजेंडों की पूर्ति भी करता है।
देश में आप कहीं भी देखें सांप्रदायिक तनाव के समय अलग-अलग समुदाय के धर्मस्थानों में लाऊडस्पीकर का अतिरिक्त प्रयोग शुरु हो जाता है। अपने-अपने धर्म व समुदाय के लोगों को इसी लाऊडस्पीकर के माध्यम से इकठा किया जाता है। इसी के माध्यम से नफरत फैलाने वाले तथा दूसरे समुदाय के लोगों को उकसाने वाले भाषण दिए जाते हैं। अपने समुदाय के लोगों के बीच दूसरे समुदाय के विरुद्ध नफरत पैदा की जाती है तथा उन्हें भडक़ाया जाता है। अफसोस की बात है कि यह सब हिंसा फैलाने वाली तथा भडक़ाऊ बातें इसी लाऊडस्पीकर के माध्यम से की जाती हैं जिन्हें धर्म की आड़ में तथा धर्म के नाम पर लगाया व चलाया जाता है। वैसे लाऊडस्पीकर किसी भी धर्मस्थान पर लगाने व इसे पूरी आवाज़ में बजाने में सबसे अधिक व पहली दिलचस्पी धर्मस्थान के उस पुजारी,मौलवी अथवा ज्ञानी की होती है जिसे अपनी रोज़ी-रोटी की खातिर भक्तों के रूप में लोगों को अपने पास पूजा-पाठ अथवा इबादत आदि के बहाने बुलाना होता है। इन लोगों को भलीभांति इस बात का ज्ञान होता है कि जब कोई भक्त मेरे पास आएगा तो वह कुछ न कुछ देकर ही जाएगा। हालांकि प्रत्येक धर्म व समुदाय में ऐसे लोग बहुसंख्या में हें जो धर्मस्थानों पर लगने वाले लाऊडस्पीकर तथा उनके द्वारा प्रतिदिन समय-समय पर फैलाए जाने वाले ध्वनि प्रदूषण का विरोध करते हैं। परंतु जब इनमें से कोई व्यक्ति हिंदू होने के बावजूद आगे बढक़र किसी मंदिर के पुजारी से लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे को बंद करने की बात कहता है तो वह पुजारी फौरन ही उस पर नास्तिक होने का लांछन मढ़ देता है। सभी धर्मसथलों के ऐसे रखवाले जो शोर-शराबे के माहौल में ही खुद को रखना पसंद करते हैं वे ध्वनि प्रदूषण से किसी दूसरे को इस शोर-शराबे से पहुंचने वाली तकलीफ जैसी बातों के विषय में न तो जानते हैं न ही इस बारे में कुछ सुनना चाहते हें। इसके बजाए उन्हें लाऊडस्पीकर बंद करने में अपनी दुकानदारी ही बंद होती दिखाई देती है।
शरद यादव का तर्क बिल्कुल न्यायसंगत है कि किसी धार्मिक व्यक्ति को आखिर लाऊडस्पीकर के द्वारा चेताने या उसे जबरन धर्मस्थल की ओर बुलाने की ज़रूरत ही क्या है? प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति जो किसी भी निर्धारित समय पर मंदिर-मस्जिद,चर्च अथवा गुरुद्वारे जाने का इच्छुक है उसे वहां जाने से न तो कोई रोक रहा है और न ही कोई रोक सकता है। और जो व्यक्ति स्वेच्छा से वहां जाना नहीं चाहता उसे लाऊडस्पीकर की आवाज़ सुनाकर,गला फाडक़र या चिल्लाकर बुलाया नहीं जा सकता। यहां एक और तर्क काबिल-ए-गौर है। मान लीजिए पांच हज़ार की आबादी वाले क्षेत्र में किसी धर्मस्थान पर लाऊडस्पीकर का प्रयोग किया जा रहा है। यह भी मान लिया जाए कि इनमें से पांच-दस अथवा बीस लोग इस लाऊडस्पीकर की आवाज़ सुनकर धर्मस्थानों की ओर चले भी जाते हें, शेष आबादी पर इस ‘धर्म की पुकार’ का कोई असर नहीं पड़ता। फिर आखिर मात्र दस-पांच लोगों को प्रभावित करने के लिए शेष लोगों को घ्वनि प्रदूषण से व्याकुल करने का क्या अर्थ है? जबकि इसी आबादी में वे बच्चे व युवा भी शामिल हैं जो शांतिपूर्ण वातावरण में पढ़ाई करना चाहते हैं। कई लागों की परीक्षाएं चल रही होती हैं,कई अपनी नौकरी हेतु दी जाने वाली परीक्षा की तैयारी में लगे होते हैं। कई बुज़ुर्ग व बीमार लोग लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे के चलते सो नहीं पाते। क्या किसी एक धर्मसथल के रखवाले की रोज़ी-रोटी अथवा उसका धर्म प्रचार इतना ज़रूरी है कि वह दूसरों को कष्ट पहुंचाकर भी लाऊडस्पीकर के माध्यम से शोर-शराबा मचाता फिरे?
अब तो स्थाई धर्मसथलों के अतिरिक्त ‘मोबाईल’ धर्म स्थान भी गली-गली शोर मचाते फिरने लगे हैं। कभी शिरडी वाले साईं बाबा की $फोटो किसी बैलगाड़ी में रखकर पूरा का पूरा परिवार लाऊडस्पीकर पर कोई साईं भजन बजाता हुआ गली-मोहल्लों के सभी मकानों पर दस्तक देता दिखाई देता है। यानी आपको किसी साईं मंदिर में जाकर माथा टेकने की कोई आवश्यकता नहीं। साईं बाबा स्वयं ध्वनि प्रदूषण फैलाते हुए आपको दर्शन देने हेतु आपके द्वार पर पधार जाते हैं। इसी प्रकार कभी गौशाला के नाम पर धन उगाही करने वाले लोग गऊमाता का चित्र लगाकर रेहड़ी या रेहड़े पर लाऊडस्पीकर का शोर मचाते गली-कूचों में फिरते हुए दिखाई देते हैं। कभी किसी अनाथालय के नाम पर पुराने कपड़े मांगने वाले लोग किसी वाहन में सवार होकर गली-गली घूमकर लाऊडस्पीकर पर अपने कार्यकलापों का बखान करते तथा लोगों को कपड़े-लत्ते,अन्न व नकदी का दान करने हेतु प्रेरित करते दिखाई देते हैं तो कभी अजमेर वाले ख्वाज़ा के नाम पर $कव्वालियां बजाते हुए कुछ लोग दरगाह पर चादर चढ़ाने हेतु लोगों से पैसे ठगते नज़र आते है। ऐसे सभी लोग मात्र अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए वातावरण को प्रदूषित करते हैं तथा विद्यार्थियों व बीमार बुज़ुर्गों को विचलित करते हैं। स्वयं मेरे साथ यह घटना आए दिन घटती रहती है। जब कभी मैं लिखने-पढऩे बैठती हूं अक्सर उसी समय उपरोक्त में से कोई न कोई तथाकथित ‘धर्मभीरू’ लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे के साथ आ धमकता है। परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से पढ़ाई-लिखाई की ओर से उस समय ध्यान भटक जाता है।
कुछ वर्ष पूर्व पटना में ऐसी ही एक घटना उस समय घटी थी जबकि पटना हाईकोर्ट के समीप की एक मस्जिद में लाऊडस्पीकर पर अज़ान की आवाज़ अचानक ज़ोर-ज़ोर सुनाई देने लगी। स्वाभाविक रूप से हाईकोर्ट के न्यायाधीश विचलित हो उठे तथा उनका कामकाज बाधित हुआ। इसके बाद न्यायधीश महोदय ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराकर उस मस्जिद से लाऊडस्पीकर उतरवा दिया। परंतु इस मामले को राजनैतिक रूप देते हुए तथाकथित धर्मावलंबी लोग सडक़ पर उतर आए। उन्हें शोर-शराबे से पडऩे वाले विघ्र की वास्तविकता को समझने के बजाए इस्लाम पर संकट नज़र आने लगा। ठीक उसी तरह जैसेकि कांठ में मंदिर पर लगे लाऊडस्पीकर की आवाज़ बंद करने के नाम पर हिंदुत्व पर संकट नज़र आने लगा था। वैसे भी धर्मस्थलों तथा चलते-फिरते वाहन रूपी धर्मवाहनों के अतिरिक्त आए दिन घनी आबादी के बीच होने वाले जगराते,पाठ,मीलाद,अथवा शब्बेदारी व$गैरह जैसे धार्मिक आयोजनों में अधिक शोर-शराबा करने वाले तथा पूरे मोहल्ले या कस्बे में शोर मचाने वाले लाऊडस्पीकरों की ज़रूरत ही क्या है?
लाऊडस्पीकरों की आवश्यकता तो केवल उस व्यक्ति को हो सकती है जो किसी धार्मिक आयोजन में शामिल होने के लिए किसी धर्म सथान पर पहुंच चुका है। और ऐसे व्यक्ति के लिए कम आवाज़ वाले स्पीकर बॉक्स की आवाज़ ही काफी है जो केवल धर्मस्थान के परिसर के भीतर ही सुनाई दे। यदि कोई धर्मस्थान आम लोगों को दु:ख-तकलीफ अथवा नु$कसान पहुंचाकर या वातावरण को प्रदूषित कर अपनी धर्मध्वजा को बुलंद रखना चाहता है तो यह पूरी तरह अधार्मिक व अनैतिक होने के साथ-साथ अमानवीय कृत्य भी है। क्योंकि धर्मस्थलों का काम वातावरण को साफ-सुथरा व स्वच्छ बनाना है प्रदूषित करना नहीं।
:-निर्मल रानी
निर्मल रानी
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