प्रदेश में चौदह साल बाद सफेद केरोसिन दुकानों से बेचा जा सकेगा। खाद्य एवं आपूर्ति विभाग इसे फिर बाजार में बेचने की योजना बना रहा है। प्रदेश में वर्ष 2000 से केरोसिन को खुले बाजार में बेचे जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। सरकार ने ऐसा इसकी कालाबाजारी रोकने की गरज से किया था। सरकार ने पहले केरोसिन का रंग बदला मगर बात बनी नहीं तो फिर सन 2000 में इसे खुले बाजार से ही हटा लिया गया। अब फिर खाद्य एवं आपूर्ति विभाग काला बाजारी रोकने के लिए केरोसिन को खुले बाजार में बेचने की जुगत में लग गया है।
सरकार का यह फैसला फौरी तौर पर तो अच्छा लग रहा है लेकिन यह कितना कारगर साबित होगा यह पूर्ववर्ती कोशिशों से मिली नाकामी ही दर्शा रही है। वास्तविक जरूरतमंदों का हक मारकर कालाबाजारी करने वाले खुद तो रातों रात मालामाल हो रहे हैं वहीं वे समाज में तंगहालों की फौज भी खड़ी कर रहे हैं। करोसिन, गेहूं, चावल आज भी गरीबों का सपना ही साबित हो रहे हैं। सरकारें इनकों लेकर अपनी पीठ खुद ही थपथपा ले लेकिन यह सच है कि आज भी दो जुन की जुगाड़ करने वाले इनके लिए अपना जीवन ही खपा रहे हैं।
करोसिन, गेहूं, चावल आज भी गरीबों का सपना ही साबित हो रहे हैं। सरकारें इनकों लेकर अपनी पीठ खुद ही थपथपा ले लेकिन यह सच है कि आज भी दो जुन की जुगाड़ करने वाले इनके लिए अपना जीवन ही खपा रहे हैं।
न तो उनकी माली हालात सुधरी और न ही सरकारी दावों के अनुसार उन्हें गेहूं, चावल और केरोसिन निर्धारित मात्रा में सही समय पर मिल रहा है। इसकी निगरानी करने वाला तंत्र कहीं न कहीं काला बाजारियों के गले में बाहें डाले अपना उल्लू सीधा करता हुआ नजर आ रहा है। ऐसा नहीं है कि जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों को काला बाजारियों के गोरखधंधे का पता नहीं है बल्कि वे बगुले के समान अपनी आंखे बंद होने का ढोंग करते हुए अपनी स्वार्थ सिद्धी में लगे हुए हैं। सरकारें चुनाव के समय तो आम मतदाता मेरा भगवान और मैं उसका पुजारी बताने वाले प्रतिनिधियों के जरिये माया जाल फैलाकर जीत के लिए जरूरी वोट तो कबाड़ लेती हैं लेकिन सत्ता का नशा चढ़ते ही मतदाताओं को भगवान भरोसे ही छोड़ देती हैं। कालाबाजारी समाज में गहरी खाई बना रही है तो वहीं कानून और कायदों की सरेआम धज्जियां उड़ा रही है।
सरकार ने राशन कार्डो के रंग बदले, खाद्यान्न की मात्रा बदली मगर वाह वाही लूट कर यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि जरूरतमंदों को खाद्यान्न मिल भी रहा है कि नहीं। सरकारी उचित मूल्य दुकानों पर आज भी उपभोक्ताओं से अभद्रता करने की आम शिकायतें हैं। सेल्समेनों के रवैये में न तो कोई परिवर्तन आया है और न ही वे किसी को कुछ समझने को तैयार हैं। कालाबाजारी रोकने के लिए सख्त कानून बनाना ही काफी नहीं उस पर ईमानदारी से अमल करना भी जरूरी है। दिनों दिन बढ़ते काला बाजारियों के रसूख के सामने प्रशासन और जनप्रतिनिधि किस तरह अपना कद बढ़ा पाएंगे यह देखना दिलचस्प होगा वरना फिलहाल वे बौने ही साबित हो रहे हैं।
:- संजय चौबे
लेखक परिचय :- संजय चौबे 1987 से सर डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक है। वे दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में पत्रकारिता में सक्रिय रहे हैं। दैनिक विश्व मानव(करनाल, हरियाणा), दैनिक जागरण भोपाल मप्र, दैनिक देवगिरी समाचार (औरंगाबाद, महाराष्ट्र), दैनिक चेतना, राजएक्सप्रेस, नवभारत, संझा लोकस्वामी, प्रभातकिरण, स्वतंत्र समय भोपाल में सक्रिय पत्रकारिता करते रहे हैं। वर्तमान में पल-पल इंडिया जबलपुर के खंडवा ब्यूरो के रूप में कार्यरत हैं। .
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